Principal of Jainism



जैन धर्म


दुनिया के सब धर्मो में जैन धर्म अनादि (मानव सभ्यता के आरम्भ काल से उत्पन्न ) धर्म है। प्रथम जैन तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे। उन्हें पुरानो में आदिनाथ और ऋषभदेव के नाम से खेती बाड़ी और पशुपालन व्यवस्थता के बारे में उस आदियुग में मनुष्य को सिखाने का श्रेय दिया गया है उनके पुत्र भारत इस आर्य देश के चक्रबर्ती राजा  हुए और उनके दुसरे पुत्र बाहुबली ने वैराग्य लेकर दक्षिणांचल में विचरण किया। त्याग,ज्ञान और तप की साक्षात् साधना का अनूठा उदाहरण उस युग में रखा।
 
अहिंसा, सत्य .अचोर्य (चोरी करना ), ब्रहचर्य तथा अपरिग्रह के सिद्धांत प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवन के समय से आदि धर्म या मानव धरम के नाम से अपनाये जाने लगे।यही कारन है की भगवन ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर से अंतिम तीर्थंकर 24वे तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय काल के बीच अन्य 22 तीर्थंकर के अलावा इन लाखो वर्षो में अनेकानेक ऋषि मुनि भी मानव जाति को इन्ही पञ्च तत्वों पर चलने की शिक्षा देते रहे।भगवान् महावीर से पूर्व और उनके निर्वान के सदीयो बाद तक "जैन " शब्द का प्रादुर्भाव नहीं हुआ।
अक्सर जैन समुदाय के लॊग भी उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्यों से अनभिज्ञ है और आधुनिक इतिहासकारो का कथन है की जैन धर्म की उत्त्पत्ति गौतम बुध के समकालीन भगवान् महावीर ने की,तुरंत मान लेते है। जबकि हिन्दू वेद ,पुराण एवम उपनिषद प्रथम तीर्थंकर को अंगीकार करते है। भारतवर्ष का नामकरण ऋषभदेव को अंगीकार करते है।भारतवर्ष का नामकरण रिश्व्ह्देव के पुत्र भारत कुमार के पीछे मानते है। जैन धर्म वीतराग धर्म , दया धर्म , केवली धर्म के नाम से भी जाना जाता है।

वास्तव में जैन धर्म के मूल सिद्धांत तो आज तक किसी धर्म से विपरीत रहे है और ही भविष्य में किशी ऐसे धर्म की कल्पना ही की जा सकती है जो जैनत्व  की पांच मूल बातो को आंशिक रूप से ही नकार सके।
भगवान् महावीर के समय जैन धर्म का नाम श्रमण धर्म था। भगवन महावीर ने श्रमण धर्म की स्थापना कर श्रमण भिक्षु और गृहस्थ श्रावक बनाये। पाखण्ड, ढोंग,दिखावा ,यज्ञ ,पशुबलि आदि फ़ैली क्रियाकांड और कुरुतियो का भगवान् महावीर ने विरोध कर धर्म को आत्मा की और केन्द्रित कर शुद्ध आत्मशुद्धि द्वारा आत्म कल्याण का रास्ता बनाया।

महावीर के अनुसार आत्मा के शत्रुओ - क्रोध , मोह , मान , माया इत्यादि (जो कि सांसारिक दुखो के कारण है)  को जीतकर प्राणी मात्र (मनुष्य ही नहीं सुक्षतम जीवाणु ) खुशहाली प्राप्त का कर सकते है तथा मोक्ष , मुक्ति और परिनिर्वाण प्राप्त कर सकते है। ऐसे आत्मा के कषायों पर विजेता ही गणतंत्र वैशाली के करीब 2580 वर्ष पूर्व के राजकुमार वर्धमान "महावीर " कहलाये। उनकाश्रमण धर्म कालांतर में अपने समकालीन बोद्ध श्रमण भिक्षुओ से प्रथकता के लिए "जिन "के नाम से जाने जाना लगा। "जिन " से तात्पर्य है "विजेता" यानी जिसने आत्मा के अंदरूनी शत्रु राग,द्वेष,कामादि पर विजय प्राप्त कर ली है। इसी "जिन " धर्म का अपभ्रंश धीरे - धीरे "जैन  " धर्म से पड गया।

 "जैन " धर्म के धारणाये मूलत: मनुष्य की धारणाये है, ये किसी देव , देवता, ऋषि मुनि या किसी तीर्थंकर की उपासना श्रद्धा की और इंगित नहीं करती है। कई खिलाफत नहीं सिखाती है सिवाए आत्मा के कषायो के खिलापत को छोड़कर। जैन धर्म में व्यक्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है।
"जैन " धर्म में कही नहीं कहा गया है की भगवान् महावीर या किसी अन्य तीर्थंकर ऋषि , मुनि की उपासना से कोई भौतिक लाभ हो या कोई सांसारिक इच्छा की पूर्ति हो सकेगी। जैन धर्म में सांसारिक इछाओ की पूर्ति के लिए कोई मनोती मनाने वाली उपासना नहीं है। सिर्फ आत्मा ही आर्ध्य है। आत्मा निर्मल बनाकर जीव आत्मा से परमात्मा पद को प्राप्त कर अजर अमर हो सकता है।आत्मा और परमात्मा एक ही स्थिति विशेष के दो पैमाने आदि (शुरुआत) और अनंत (अंत) है।एस रास्ते को पार करने कई रास्ते हो सकते है।कोई रास्ता अपनाये , आत्म शुद्धि द्वारा ज्ञान ,तप समता और साधना से आत्मा पर विजय प्राप्त कर ही परमात्मा बन सकते है।

इसी वजह से जैन धर्म गैर सांप्रदायिक है।जैन धर्म का मुख्य महामंत्र नवकार किसी व्यक्ति विशेष ,परमात्मा या महावीर स्वामी को नमस्कार नहीं करता है। उसमे तो संसार के सभी (धर्मो के ) महापुरुषों ,सिद्धो एवं अरिहंतो की वंदना की गई है। गुण और पद की उपासना की गई है।ऐसे विशालता अन्य कही नहीं मिलती।आज की तांत्रिकता से तृप्त मानवता को विश्व प्रेम, शांति और अहिंसा की जितनी जरुरत झी उतने शायद भगवांन महावीर के युग में भी नहीं थी।
RAJPUT HOSTEL
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